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सदा दुख का अमृत पी
मैंने सुख की गुहार की तुमसे।
पर पीड़ा और दुख के सिवा
मिला नहीं मुझे कुछ भी।
घिरी हुई है मेरी प्राण-चेतना
पीड़ाओं, कुण्ठाओं, तनावों, निराशाओं
और झूठी आस्थाओं से।
काँटों में खिलने वाला मेरे मन का गुलाब
मुर्झा रहा है, डाल पर ही सूख रहा है।
मानवीय न्याय के प्रति मेरी पुकार
पड़ती जा रही है धीमी।
फिर भी बैंकों, येनों, टकों
रूबलों, रुपयों तथा डालरों से
धरती का मालिक-सपूत, श्रमिक
क्रीत न हो कभी!
हिटलरी, डालरी, रेडीमेड, समाज का
दास न हो कभी
यही मेरी भावना, कामना,
आराधना रही है तुमसे!
श्रमिक केवल श्रम में हो न हो,
पर वह आने वाली पीढ़ियों के
हाथों-पावों में जीवंत रहे!
उनके अरमानों की शक्ति बने-
और शोषण, अत्याचार तथा अन्याय की मौत न मरे।
उसका लहू किसी भी बारूदी ताप से
सुखाया न जा सके!
वह जन्म ले
हर नई बात में,
हर नई घटना में!
जीवित रहे
सपनों में
दुनिया के, इस धरा के।
और सदाबहार फसलों, मौसमों की तरह,
लौट-लौट कर आये इस धरती पर-
तुमसे इसी सुख की
गुहार है मेरी।
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Always drinking the nectar of sadness
I urged you for happiness.
But, except sadness and pain
I got nothing.
My life force is hemmed in with
pains, frustrations, stresses, disappointments
and bogus beliefs.
Blooming among thorns,
the lotus of my psyche
is fading, drying on the branch itself.
My call for human justice
is getting low.
Still,
may not the owner-son—
the worker of this earth
ever be a slave of the banks, yens, takas,
rubles, rupees and dollars!
May not he ever be a slave of
the Hitleri, dollar-based,
ready-made society—
this is my wish, aspiration,
prayer to you!
A worker may or may not be
in the work only,
but he must be alive
in the hands and feet of the coming generations.
May it be the strength of their longings,
and not meet death caused by exploitation, torture and injustice!
May his blood not be dried
by means of some heat of explosives!
May he take birth
in every new thought,
in every new event!
May it be alive
in dreams of this world, of this earth!
And like ever green crops, seasons,
may it come to this earth again and again—
my urge to you is
for this very happiness.
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Sunday, November 29, 2015
My Urge To You
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