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जगतपिता!
जैसे एक मीन का जन्म और अन्त
सागर में होता है
सागर ही उसका जीवन, जगत और सत्ता है।
सागर ही उस मीन के भीतर-बाहर है।
प्रभो मेरे! वैसे ही तुम
मेरे बाहर-भीतर हो।
मेरे आर-पार तुम्हीं हो।
वास्तव में, मैं तुम में हूँ।
अलग से मेरी कोई सत्ता है ही नहीं।
मैं तो तुम्हारी ही सत्ता में घुला-मिला हूँ।
सच कहँू तो
मैं हूँ ही नहीं,
केवल तुम ही हो।
फिर मेरा तुम्हें खोजना,
तुम्हें पाने का प्रयास करना
व्यर्थ ही है।
कारण कि मैं हूँ ही नहीं
केवल तुम्हीं हो, सर्वत्रा।
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Jagatpita!
As the birth and death of a fish
take place in the sea,
the sea is its life, world and entity.
Only the sea is in and out of the fish.
O my God! Likewise You are
in and out of me.
Only You are transversely in me.
In fact, I am in You.
No separate existence do I have.
I am the part and parcel of Your existence.
Frankly speaking,
I am nowhere,
only You are there.
Then my search for You,
my effort to get You
is absolutely pointless.
The reason is that I am nowhere
only You are, everywhere.
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Sunday, November 29, 2015
Only You Are
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