|
|
किसी भी सत्ता की सीमा नहीं है यह संसार,
यह केवल सीमा है मनुष्य की इन्द्रियों की।
इन्द्रियों के पार है
असीम फैलाव, असीम विस्तार।
सच में, इन्द्रियों से हम
पूरा का पूरा असीम कभी नहीं पा सकते!
इन्द्रियाँ तो केवल अंश तथा खंड देखती हैं,
असीम तथा अनंत कभी भी
खंडित और विभाजित नहीं हो सकता।
असीम तो मात्रा असीम से ही प्राप्त होता है।
असीम होकर ही हम असीम को जान सकते हैं।
किन्तु असीम
इन्द्रियों और बुद्धि से परे है।
हमें अनुभूति है इस सत्य की
कि हम नगण्य और सीमित प्राणियों में
विराजमान है असीम भी।
वह हमारी इन्द्रियों में है, इन्द्रियाँ में ही नहीं है
वह तो इन्द्रियातीत आयाम में फैला हुआ है।
सच तो यह है कि वह अदृश्य है,
जो दृश्य के घेरे में विराजमान है।
वह अखंड है,
जो खण्ड में सुशोभित है।
और यह अदृश्य अखंडित है सचमुच।
दृश्य इस अदृश्य को पा
जगत के सभी अदृश्यों को पा लेता है।
|
This world is not the limit of any power,
this is only the limit of human senses.
Beyond the senses is
limitless expansion, infinite extension.
In reality, through the senses
we can never ever get the infinite fully!
Senses only see part and portion,
the infinite and the endless
can never be split and divided.
The infinite can only be gotten from the infinite.
On becoming infinite we can know the infinite.
But, the infinite is
beyond the senses and wisdom.
We have the perception of this truth
that the infinite also resides in
the immaterial and imperfect creatures like us.
He is in our senses, not only in the senses,
He inhabits the dimension beyond the senses.
Actually, He is invisible,
That is present in the periphery of visible.
He is undivided,
That is well positioned in the component.
And the invisible is really undivided.
The visible on getting the Invisible
obtains all the imperceptible of the world.
|
Sunday, November 29, 2015
On Getting This Invisible
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment